(मासूम की आवाज़)
पिता जी ने कुछ बरस पेहले एक जोङी, रंग बिरंगा सुंदर सा नया जूता लाकर दिया
था | आज भी याद है जब वो बंद डिब्बे में उन्हें लेकर आये थे तब मैं उन्हें
देखते ही पूरे आँगन में नाचने लगा था , अल्हड़पन का दौर जो था | घर में एक
अलग सी चेहल पेहेल मची रेहती थी, धीरे धीरे मैं जवानी के उस मोड़ पर जा
पाहुंचा, जहाँ अब हालातों को देख मन मार लिया करता था | पर घर के उन
डगमगाते हालातों में भी वो जूते हर दुख-सुख में मेरा साथ देते थे , आखिर
देंगे ही एक वही जोड़ी जूता जो बचा था | केहने का तो बहुत मन करता , पर घर
के हालात अभी कुछ नाज़ुक थे | केहता भी तो कैसे ? जेबें अभी खाली जो पड़ी
थीं | समय बदलेगा यही सोच कर खुश हो लेता था | हर दिन वही जूता पेहेन कर
कालेज जाया करता , हालंकी किनारों से थोड़ा फट सा गया था | बेशरम इतने हैं
ये जूते कि बारिश में भी टिके रेहते हैं | कुछ लोग तो अब हसने लगे हैं | जब
भी मेरे जूतो की तरफ़ देखते हैं “चमकदार जूते वाला” केह कर चिढाते हैं ,
जबकि मुझे पता है वो जूतों की हालत पर हंसते हैं | पर अफ़सोस नही होता मुझे
उन्हें देख कर अखिर कार पिता जी इतने मन से जो लेकर अये थे | और हालात जो
भी हो यही तो हैं जो इस ज़िंदगी की टूटी राहों पर मेरा साथ देते हैं …यही
मेरे अपने फटे जूते |
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