Sunday 24 February 2019

लोग क्या कहेंगे?


लोग क्या कहेंगे?

जो तूने कदम घर से निकाला तो लोग क्या कहेंगे,
जीन्स पहेन जो कॉलेज गयी तो लोग क्या कहेंगे,
दोस्ती किसी लड़के से की तो लोग क्या कहेंगे,
घर जाने मे थोड़ी देर जो की, तो लोग क्या कहेंगे,
ज़िद्दी है भाई से ज़्यादा, तो लोग क्या कहेंगे,
मम्मी पापा से मन की बात शेर करती है,
लोग क्या कहेंगे,
तूने आज ड्रिंक कर ली, लोग क्या कहेंगे,
तू इतना घूमती है बिना घर वालो के,
लोग क्या कहेंगे
तुझे प्यार करने का हक़ नही था,
फिर भी कर लिया,
लोग क्या कहेंगे,
अरे तूने उनके बताए रिश्ते को माना कर दिया,
लोग क्या कहेंगे,
तू जॉब करती है लोग क्या कहेंगे,
तेरी सॅलरी भाई से ज़्यादा है लोग क्या कहेंगे,
तू अकेले रहती है ,
लोग क्या कहेंगे,
समझ बेटा आंटी रिश्ता लेकर आई है,
माना नई करना,
लोग क्या कहेंगे,
तू रात रात काम करती है,
लोग क्या कहेंगे,
तू क्या करेगी अर्न करके ,
शादी, घर, बचे ही तेरा लेखा है,
तू शादी नई करना चाहती,
लोग क्या कहेंगे,
अरे लोग लोग लोग! कौन लोग?
ना जाने क्यू हम आज भी इन्ही लोगो से डरते है,
ओर इन्ही लोगो के दर से जाने कितने ओर कितनी बार , हज़ारों सपने, टूट कर बिकार जाते है,
ओर कितने ही अरमान, दम घोट कर मार दिए जाते है,
आख़िर क्या कहेंगे ये लोग? ओर क्यू कहेंगे ये लोग?

Monday 11 February 2019

मेरा फटा जूता

जूता
(मासूम की आवाज़)

पिता जी ने कुछ बरस पेहले एक जोङी, रंग बिरंगा सुंदर सा नया जूता लाकर दिया था | आज भी याद है जब वो बंद डिब्बे में उन्हें लेकर आये थे तब मैं उन्हें देखते ही पूरे आँगन में नाचने लगा था , अल्हड़पन का दौर जो था | घर में एक अलग सी चेहल पेहेल मची रेहती थी, धीरे धीरे मैं जवानी के उस मोड़ पर जा पाहुंचा, जहाँ अब हालातों को देख मन मार लिया करता था | पर घर के उन डगमगाते हालातों में भी वो जूते हर दुख-सुख में मेरा साथ देते थे , आखिर देंगे ही एक वही जोड़ी जूता जो बचा था | केहने का तो बहुत मन करता , पर घर के हालात अभी कुछ नाज़ुक थे | केहता भी तो कैसे ? जेबें अभी खाली जो पड़ी थीं | समय बदलेगा यही सोच कर खुश हो लेता था | हर दिन वही जूता पेहेन कर कालेज जाया करता , हालंकी किनारों से थोड़ा फट सा गया था | बेशरम इतने हैं ये जूते कि बारिश में भी टिके रेहते हैं | कुछ लोग तो अब हसने लगे हैं | जब भी मेरे जूतो की तरफ़ देखते हैं “चमकदार जूते वाला” केह कर चिढाते हैं , जबकि मुझे पता है वो जूतों की हालत पर हंसते हैं | पर अफ़सोस नही होता मुझे उन्हें देख कर अखिर कार पिता जी इतने मन से जो लेकर अये थे | और हालात जो भी हो यही तो हैं जो इस ज़िंदगी की टूटी राहों पर मेरा साथ देते हैं …यही मेरे अपने फटे जूते |

– वैभवी तिवारी

Tuesday 20 September 2016

मन की बात

मन

न की बात

मेरे हालातों की नुमाइश
के लुटेरे यहाँ हज़ार बैठे हैं
मदद-ए-हाथ को पीछे कीचने वाले
यहाँ  हज़ार बैठे हैं...
गमों के बोझ तले काँधे अब
झुक से गये हैं
मेरे अश्कों पे हसने वाले
यहाँ हज़ार बैठे हैं...
कतरा कतरा खुशी को ढूँढती
जिस भी नज़र से मिली
निगाहों के दरवाज़े बंद कर
दुतकारने वाले यहाँ
हज़ार बैठे हैं...
रुक्सत हो जाऊंगी एक दिन
ऊमीदों के बादल के साथ
यहाँ ना सही!
आसमानों में मेरे कदरदान
हज़ारों बैठे हैं |

Wednesday 25 May 2016

आखरी अलविदा

आखरी अलविदा
जिस खुशी से चला था आज उस ओर,
कि फ़िर कुछ सीख कर वापस आऊँगा|
अम्मी को सलाम अब्बू को आदब कर निकला
इस बात से अनजान की आखरी
अलविदा भी ना कह पाऊँगा
मदरसा समझ कर गया था
चंद पलों में कब्रिस्तान बन गया
सब कुछ एक पल में डेह गया |
आज यारों ने मस्ती का माहौल बनाया था
एक दूसरे की टाँग खीच, खूब चिढाया था |
हर चेहरे पर एक मुस्कान छाई थी,
कुछ कर जाने की उमीद, आंखों में आयी थी |
तभी एक झौंका आया खौफनाक मौत का पैगाम लाया |
एक नहीं दो नहीं, कई हैवान साथ लाया |
ना लड़कों को ना लड़कीयों को
ना छोङा बङे  - बड़ों को ।
जला कर खाक कर दिया, खुदा के नेक बंदों को
किसी को काटा, किसी को जलाया
किसी को हैवानियत से फूँक डाला |
जिन आंखों में खुशी चमक रही थी
अब उनमें मौत का डर दिख रहा था |
दिल दहल सा गया था यह देख कर,
कि वे खिलौना समझ कर,हम पर गोलियाँ बरसा रहे थे |
ना खुदा का दर था, ना इंसानियत की चन्द बूंदें बची थीं ,
था तो बस, जिहाद के नाम पर बदला |
अभी तो अम्मी की गोद से बाहर अये थे,
अभी सही से खडा होना भी ना सीखा था
कि उन जानवरों ने फ़िर से सुला दिया
एक दर्दनाक मौत का एहसास करा दिया |
उन ना-पाक दरिनदों को शर्म से एक आँसू भी ना आया था |
एक-एक कर सबको मौत के घाट उतार दिया,
बच्चों को जिन्दगी की भीख माँगनें पर मजबूर कर दिया।
मेंरी आँखें उनकी नज़रों से छुप रहीं थी,
पर अंजान था मैं इस बात से कि,
जिस पल मुड़ा तो वह सीन चीर देने वाली गोली,
मुझे भी अपना निशाना बना लेगी |
मेरी चीख भी ना पहुँच पायी ,मेरी अम्मी के कानों तक |
चूर-चूर हो गये सारे  सपने! सारी उम्मीदें
ए-मेरे -खुदा ना दिखना ये मनज़र कभी किसी को,
ये गुज़ारिश कर मैं चला,
जमानें से आखरी अलविदा कर चला ||
By- वैभवी तिवरी

औरत

औरत

कहीं दूर कोई चलती जा रही थी…
उसे देख मन में प्रेरना उभरती जा रही थी…
ना जाने किस तलाश में चलती जा रही थी…
बस पीछे अपनी छाप छोडती जा रही थी…
मन में उत्साह ओर कदमों में चाह थी उसके…
हर दोराहे पे गीत गुन-गुनाती जा रही थी…
दिल में शायद कोई गम था उसके…
ना जतलाते किसी को…
बस बढती जा रही थी…
तनहा राहों को चुनकर…
कांटो में कदम रखकर…
गम से भाग या खुशी धूंधती…
बस पाथ पर चलती जा रही थी…
ज़माने ने नोचा, लोगों ने खींचा…
हर निशान को छुपाती , बस चलती जा रही थी…
सादे पन्नों पे, अपनी किस्मत लिखने चली थी…
दुनिया ने उसकी लकीरों में हैवानियत लिख दी थी…
तनों को सुनती…
बस चलती जा रही थी…
इतनी आहिंसा के बाद भी…
मुस्कुराती जा रही थी…
लोगों ने कहा "वो औरत" है…
दरिन्दगी को झेलती…
जीना सिखलाति जा रही थी…
बस चलती जा रही थी|

वैभवी तिवारी

Monday 23 May 2016

मरियादा

 मरियादा
अनकहे-अनजाने शब्दो में
पिरो कर रख दिया संसार ने |
क्रूर बिडियों का
मरियादा नाम रख दिया संसार ने |

आज़ाद परिनदों को जकड़ कर रख दिया
मरियादा के जंजाल में |
उजाड़ कर रख दिया
अनमोल सपनों को इस
मरियादा के महाजाल ने |

मरियादा का पाठ पढाने वालों ,
रखो मरियादा नज़रों में
ना बान्धो इसे चूङियों की खनकार में |
By- वैभवी तिवरी

Monday 2 May 2016

पाया  तो आखिर क्या पाया?
जब छिडे  सुर , मैं बोल उठा
जब थाप पड़ी, पग डोल उठा
औरों के स्वर-में -स्वर जोड़ कर
अब तक गाया तो, क्या गाया?
सब लुटा जगत को रंक हुआ ,
शून्य तब मेरा अंक हुआ ,
दाता से फिर याचक बनकर ;
तिनका -तिनका पाया, तो क्या पाया ?
जिस ओर से जग ने मुह मोडा,
उस राह को मैने भी छोडा,
भ्रष्टाचार के आंचल से बंधा हुआ ,
खिंचता आया तो, क्या आया ?
जो भूतकाल ने उगल दिया,
उसको ही तूने निगल लिया ,
माना ज्ञान , सत्य ही उचित किंतु ,
जूठन खाया ,तो क्या खाया ?
by : वैभवी तिवरी 

लोग क्या कहेंगे?

जो तूने कदम घर से निकाला तो लोग क्या कहेंगे, जीन्स पहेन जो कॉलेज गयी तो लोग क्या कहेंगे, दोस्ती किसी लड़के से की तो लोग क्या कहेंगे, ...